
Iran Israel War: ईरान-इजरायल युद्ध में अमेरिका की एंट्री से संकट काफी ज्यादा गंभीर हो गया है। अमेरिका ने 21 जून को ईरान की तीन प्रमुख परमाणु साइट्स पर बड़ा हमला किया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) ने इस कार्रवाई को ‘बेहद सफल’ बताया। उन्होंने दावा किया कि ईरान की राजधानी तेहरान (Tehran) की मुख्य परमाणु सुविधाएं ‘पूरी तरह से तबाह’ हो गई हैं।
अमेरिका ने पहले ईरान पर हमले के लिए दो हफ्ते की डेडलाइन तय की थी, लेकिन उससे पहले ही अचानक अटैक कर दिया। राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि अमेरिकी सेनाओं ने ईरान के तीन प्रमुख परमाणु ठिकानों- नतांज (Natanz), इस्फहान (Isfahan) और फोर्डो (Fordow) को निशाना बनाया। Fox News को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि फोर्डो में छह बंकर-बस्टर बम गिराए गए, जबकि अन्य ठिकानों पर 30 टॉमहॉक मिसाइलें दागी गईं।
एक तीन मिनट के संक्षिप्त भाषण में ट्रंप ने कहा, ‘ईरान का भविष्य अब या तो शांति की ओर जाएगा, या फिर तबाही की ओर।’ उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि अमेरिका के पास और भी कई टारगेट हैं, जिन पर वह आगे हमले कर सकता है।
आइए जानते हैं कि ईरान-इजरायल युद्ध में अमेरिका क्यों शामिल हुआ। ट्रंप ने पहले दो हफ्ते की डेडलाइन तय करने के बाद अचानक हमले का आदेश क्यों दिया। लेकिन, उससे पहले ईरान-इजरायल की पृष्ठभूमि समझ लेते हैं।
ईरान-इजरायल युद्ध की वजह क्या है?
ईरान-इजरायल युद्ध के केंद्र में परमाणु हथियार हैं। दरअसल, ईरान ने कभी भी इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया। वह इराजयल को ‘अवैध राष्ट्र’ मानता है। वहीं, इजरायल को ईरान के परमाणु कार्यक्रम से ऐतराज है। उसे लगता है कि अगर ईरान ने परमाणु हथियार बना लिया, तो यह उसके लिए वजूद के लिए सीधा खतरा हो जाएगा। ईरान हमेशा कहता है कि उसका परमाणु शांतिपूर्ण है, लेकिन इजरायल और पश्चिमी देश इस पर भरोसा नहीं करते।
हालिया युद्ध की शुरुआत भी परमाणु हथियार के मुद्दे पर ही हुई। इजरायल ने पहले ईरान के परमाणु और सैन्य ठिकानों पर हमला किया। इसके जवाब में ईरान ने इजरायल के कई शहरों को निशाना बनाते हुए हवाई हमले किए। उसके बाद से यह संघर्ष लगातार जारी है। दोनों देश लगातार एकदूसरे पर हवाई हमले कर रहे हैं।
ईरान से अमेरिका को क्या दिक्कत है?
अमेरिका और ईरान के बीच दुश्मनी काफी पुरानी है। 1979 में ईरान में इस्लामिक क्रांति के बाद वहां की सरकार ने अमेरिका को ‘दुश्मन’ घोषित कर दिया। तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास पर कब्जा हुआ और 52 अमेरिकियों को 444 दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया। इसे अमेरिका कभी भूला नहीं। यही वजह है कि अमेरिका भी नहीं चाहता कि ईरान परमाणु संपन्न देश बने।
2015 में ईरान और 6 वैश्विक ताकतों के बीच Joint Comprehensive Plan of Action (JCPOA) साइन हुआ था। इसमें ईरान को न्यूक्लियर एक्टिविटी सीमित करनी थी और बदले में प्रतिबंध हटने थे। लेकिन, 2018 में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे ‘इतिहास की सबसे बेकार डील'”कहकर अमेरिका को इस समझौते से बाहर निकाल दिया और ईरान पर फिर से भारी प्रतिबंध (sanctions) लगा दिए।
अमेरिका ने ईरान पर हमला क्यों किया?
अमेरिका का ईरान पर बड़ा हमला ऐसे समय में हुआ है, जब खुद ट्रंप ने ईरान पर किसी भी सैन्य कार्रवाई के लिए दो सप्ताह की डेडलाइन तय की थी। उन्होंने यह निर्णय इजरायल की मांग के उलट लिया था। लेकिन अब सवाल उठता है कि अमेरिका ने आखिरकार यह कार्रवाई क्यों की?
समाचार एजेंसी रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार, इजरायल सरकार के शीर्ष अधिकारियों ने ट्रंप प्रशासन से संपर्क किया और कहा कि वे दो सप्ताह का इंतजार नहीं कर सकते। अगर अमेरिका साथ नहीं आता, तो इजरायल अकेले हमला कर सकता है। यह संदेश अमेरिकी सरकार को गुरुवार को एक “तनावपूर्ण फोन कॉल” के जरिये दिया गया।
इस कॉल में इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू (Benjamin Netanyahu), रक्षा मंत्री इस्राइल काट्ज (Israel Katz) और सेना प्रमुख एयाल जामिर (Eyal Zamir) शामिल थे। उन्होंने अमेरिकी प्रशासन से आग्रह किया कि ईरान को चेतावनी देने के बजाय, तुरंत कार्रवाई जरूरी है।
ईरान के Fordow पर फोकस क्यों?
इजरायली सूत्रों के अनुसार, ईरान का Fordow न्यूक्लियर प्लांट उसके पूरे परमाणु कार्यक्रम का “क्राउन ज्वेल” माना जाता है। यह सुविधा पहाड़ी के अंदर बनाई गई है और इतनी गहराई में है कि सिर्फ अमेरिका ही वहां तक मार करने वाले बम गिरा सकता है। Fordow जैसी अति-सुरक्षित साइट को नष्ट करने के लिए GBU-57 Massive Ordnance Penetrator जैसे बम की जरूरत होती है, जिसका वजन 30,000 पाउंड होता है। यह बम अमेरिका के B-2 बॉम्बर्स द्वारा ले जाया जाता है।
शनिवार को जब यह खबर आई कि अमेरिका ने B-2 बॉम्बर्स को गुआम (Guam) में तैनात कर दिया है, तभी इस हमले की संभावना और तेज हो गई थी।
अमेरिका की भीतरी बहस और विरोध
इस कार्रवाई से पहले अमेरिकी प्रशासन में भी तीखी बहस चली। फोन कॉल के दौरान अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस (JD Vance) ने इस हमले का विरोध किया और कहा कि अमेरिका को सीधे तौर पर इसमें शामिल नहीं होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि इजरायल अमेरिका को जबरन युद्ध में घसीटना चाहता है।
इस कॉल में अमेरिकी रक्षा मंत्री पीट हेगसेथ (Pete Hegseth) भी शामिल थे। हालांकि अंततः ट्रंप ने हमला करने का निर्णय लिया, जो कि एक बड़ा भू-राजनीतिक कदम माना जा रहा है।
ईरान-इजरायल युद्ध में अब आगे क्या होगा?
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने पहले ही ईरान को धमकी दे चुके हैं कि वह ‘बिना शर्त सरेंडर’ करे। उन्होंने ईरान पर हमले के बाद देश को संबोधित करते हुए कहा, “मैं ईरान को परमाणु हथियार हासिल नहीं करने दूंगा। ईरान सिर्फ इजरायल नहीं, बल्कि अमेरिका के लिए भी खतरा है। वह पिछले 40 साल से अमेरिका और इजरायल के खात्मे की बात करता रहा है। अगर ईरान शांति कायम नहीं करता, तो हम इससे भी बड़ा हमला करेंगे। मिडिल ईस्ट के दबंग (ईरान) को अब शांति बनानी चाहिए।”
वहीं, ईरान ने पलटवार की चेतावनी दी है। ईरानी विदेश मंत्री अब्बास अरागची ने चेतावनी दी है कि ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिका के हमलों के दूरगामी नतीजे होंगे। उन्होंने कहा कि तेहरान के पास पलटवार करने के सभी विकल्प मौजूद हैं। इससे पहले खबर आई थी कि ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई (Ali Hosseini Khamenei) ने अपने उत्तराधिकारी के तौर पर तीन वरिष्ठ धर्मगुरुओं के नाम सुझाए हैं, ताकि अगर किसी हमले में उनकी मौत हो जाती है, तो देश में नेतृत्व का संकट न हो।
कुल मिलाकर, ईरान पीछे कदम खींचता नहीं दिखाई दे रहा है। वहीं, अमेरिका और इजरायल की जुगलबंदी ईरान को सरेंडर कराने पर अमादा है। इससे जाहिर होता है कि मिडल-ईस्ट का यह तनाव और भी बढ़ सकता है।